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 (शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास

दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं)

दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में स्नातक डिग्री के लिए मैने अपना दाखिला करवाया। कॉलेज में जीवन कैसा होता है, इसको लेकर मेरी विभिन्न तरह की धारणाएं और कुछ आशाएं थीं। लेकिन इनमें जो मुख्य था वह यह कि शायद आगामी तीन वर्षों में कोई प्रेमिका मिल जाए। ये वाक्य लिखते हुए मुझे अभी अजीब तरह की शर्म आ रही है जिसे आजकल लोग "cringe" कहते हैं। लेकिन अब जो सच है सो है।

    कहानी आगे बढ़ाने से पहले थोड़ी भूमिका दे दूं। कॉलेज से पहले मेरा लड़कियों से बोलचाल बिलकुल न्यूनतम रहा। 12वीं कक्षा में कोचिंग में एक "crush" हुआ करती थी। लेकिन उससे कभी बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। संयोग से एक दिन वो मेरे पीछे वाले बेंच पे बैठी थी। तब उसने मुझसे कहा था, "जरा साइड होना, मुझे सामने बोर्ड नहीं दिख रहा।" बस इतनी बात हुई थी। कक्षा 5 से 10 तक मैं ऑल बॉयज रेजिडेंशियल स्कूल में था।

      खैर, वापस कॉलेज आते हैं। कॉलेज शुरू होने के 10-11 दिन बाद मेरा ध्यान एक लड़की पे गया। उसका नाम फिलहाल के लिए आप 'आयशा' फ़र्ज़ कर लीजिए। असली नाम मैं नहीं बताऊंगा। हिजाब पहन रखा था उसने। शायद इसीलिए मेरा ध्यान उधर गया हो। और फिर ध्यान चेहरे पर भी गया । बला की खूबसूरत थी वो। अब उसकी खूबसूरती बयान करना अभी मेरे बस की बात नहीं है। बस इतना मान लीजिए  कि मीर तकि मीर ने जो पंक्तियां लिखी " नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए पंखुड़ी इक गुलाब की सी है मीर' उन नीम-बाज़ आँखों में

सारी मस्ती शराब की सी है" वो किसी ऐसे ही शक्ल की शान में लिखी होगी। लड़की दिल को घर कर गई।

             लेकिन मैं तो ठहरा बिलकुल डरपोक। ऊपर से मामला इतना संगीन था। इसलिए मैंने खुद को समझाया कि कोई बात नहीं, अब दिल्ली में इतनी सुंदर सुंदर लड़कियां तो होंगी ही। उनके पीछे अपना चैन वैन उजाड़ कर क्या फायदा। तिस पर मैं स्वयं एक साधारण सा लड़का। वो तो मुझे घास तक न दे।

    दिन गुजरता गया। धीरे धीरे आयशा का आना भी कम हो गया। दस दिन में एक बार आती थी। आती भी थी तो देर से आती थी और जल्दी भाग जाती थी। अपने में ही गुमसुम रहती थी। दोस्त भी गिने चुने ही थे उसके। Introvert सी थी।

  एक दिन कुछ अजीब सा हुआ। फर्स्ट पीरियड चल रहा था। मास्टर साहब पढ़ा रहे थे। बाहर का शोर अंदर न आए इसलिए मास्टर साहब ने दरवाजे सटा दिए थे। आधा घंटा हो चुका था। अचानक से दरवाजा खुला। मेरी नजर भी उस ओर दौड़ पड़ी। आयशा आई थी। उसे देखते ही अचानक मेरी धड़कन तेज हो गई। मानो वो दरवाजा मेरे सीने पे आकर गिर पड़ा हो। मन उत्साह से भर गया। अगले पांच मिनट भी धड़कन तेज ही रही। मेरा ध्यान मास्टर साहब की बातों से हट चुका था। चोर निगाह से , तिरछी आंखों से मैं बार बार आयशा को देखने की कोशिश कर रहा था। मन में एक शेर आ धमक पड़ा। " माना कि तेरे दीद के काबिल नहीं हूं, तू मेरा शौक तो देख, मेरा इंतजार तो देख।" उस दिन जब कॉलेज से अपने कमरे पे लौटा तो मुझे यह स्वीकार करना पड़ा कि मामला हाथ से निकल चुका है। मैं शायद आयशा का हो चुका था।

                लेकिन बात करने की हिम्मत मैं फिर नहीं जुटा पाया। ऊपर से चूंकि वो कॉलेज नियमित रूप से नहीं आती थी, ऐसे मौके भी कम मिलते थे। इसी तरह पूरा एक साल बीत गया। मैने फिर खुद को समझाया कि बस देख कर ही खुश होते रहना चाहिए, बात आगे बढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है।       

              दूसरा साल शुरू हो चुका था। कॉलेज में डिपार्टमेंट स्तर के चुनाव चल रहे थे। मेरी क्लास से एक लड़की चुनाव लड़ रही थी। उसका नाम रानी था। चुनाव के मौसम में क्लास अलग अलग गुटों में बंट चुका था। मैं और मेरे जैसे कुछ पांच दस लड़के किसी गुट के नहीं थे। रानी ने मुझसे वोट और सपोर्ट मांगा और कहा कि नतीजे चाहे कुछ भी हो , चुनाव के बाद एक ट्रीट देगी।

   चुनाव संपन्न हुआ। रानी हार गई। बाद में रो भी रही थी। ऐसे बुरे वक्त में उसे वो ट्रीट वाला वादा याद दिलाना मुझे सही नहीं लगा। तीन चार दिन बाद अचानक मुझे रानी का कॉल आया। उसने मुझे कॉलेज के कैंटीन में बुलाया। वो ट्रीट दे रही थी। पहले तो मैंने थोड़ी औपचारिकता निभाई और कहा कि इन सब चीजों की क्या जरूरत है। लेकिन एक दो बार और  आग्रह करने पर मैं कैंटीन की ओर चल पड़ा। गया तो देखा कि वहां आयशा भी बैठी है रानी के साथ। फिर वही उत्साह, फिर वही जोश। लेकिन हमने फिर खुद को काबू में किया। पहले रानी से कुछ बातें की। उसे सांत्वना दी और फिर दूसरी चीजों पे बाते होने लगी। देखते ही देखते मैने पाया कि आयशा और मेरी भी बात होने लगी थी। मैं उस समय फिल्में बहुत देखता था। मेरा "forte" यही था। आयशा से मैने फिल्मों के बारे में बात की। बात लंबी चली। तब तक ट्रीट भी खत्म हो चुकी थी। कॉलेज बंद होने का समय हो चुका था। हम सब अब जाने वाले थे। तभी आयशा ने मुझसे पूछा, " तुम किस मेट्रो से जाते हो?" मेरे कॉलेज से लगभग समान दूरी पर दो मेट्रो स्टेशन थे; गोविंदपुरी और नेहरू एनक्लेव।  मैं गोविंदपुरी जाया करता था। मैने आयशा से पूछा ," तुम किस मेट्रो से जाते हो?" उसने जवाब दिया, "नेहरू एनक्लेव"। मैने कहा, " मैं भी वहीं से जाता हूँ"। और फिर हम एक साथ नेहरू एनक्लेव के लिए पैदल निकल पड़े।

  मेट्रो स्टेशन तक का रास्ता करीब सत्रह मिनट का था। वो सत्रह मिनट शायद मेरी जिंदगी के सबसे हसीन सत्रह मिनट थे। रास्ते भर हम बातें करते गए। बस इधर उधर की बातें । मुझसे ज्यादा वही बातें कर रही थी। मुझे थोड़ा आश्चर्य भी हुआ कि ऐसे तो ये चुपचाप रहती है, अभी कितनी बातूनी लगती है। खैर, मुझे तो उसकी आवाज किसी सरगम से कम नहीं लग रही थी। अंदर ही अंदर मैं फूला नहीं समा रहा था।

     अगले दिन आयशा फिर कॉलेज नहीं आई। वही पुराना सिलसिला फिर शुरु हो चुका था। ईद का चांद  असल में क्या होता है मुझे उन दिनों पता चला। पहली मुलाक़ात में नंबर मांग लेना मेरे हिसाब से शिष्टाचार के विरुद्ध था। इसलिए फोन पे भी बात नहीं हो पा रही थी। बीच बीच में दर्शन हो जाते थे। लेकिन बात हाय हैलो से आगे दोबारा नहीं बढ़ पा रही थी। आसपास जब चार लोग होते थे तो वह बहुत कम ही बोलती थी। और मैं भी जबरदस्ती बात नहीं करना चाहता था। एकांत का मौका आगे बन नहीं पा रहा था।

         कुछ महीने इसी तरह बीत गए। हम दोनों फिर से लगभग अनजाने बन गए थे। तब तक दो लड़कियों से मेरी दोस्ती हो गई थी। उनमें से एक थी गुंजन। संयोग से गुंजन की दोस्ती आयशा से थी। उसके पास आयशा का नंबर भी था। एक दिन मैने गुंजन से दिल का हाल बता दिया। अनुरोध किया कि अगर आयशा से फिर से मेरी बात करा दे मैं सदा उसका आभारी रहूंगा।

     अगले दिन शाम में अचानक व्हाट्सएप पर आयशा का मैसेज आया। वो मुझसे क्लास के नोट्स मांग रही थी। मैं समझ गया कि ये गुंजन देवी का चमत्कार है। आयशा से व्हाट्सएप पर बात होने के  तुरंत  बाद मैने गुंजन को फोन लगाया और पुनः अपना आभार प्रकट किया।

       अच्छे दिन शुरु हुए। व्हाट्सएप पर अब आयशा से बात होती रहती थी। धीरे धीरे वो भी खुलने लगी थी। यह भी पता चला कि उसे जानवरों से बड़ा प्रेम है। बहुत सारे विषयों पर हमारे विचार मेल नहीं खाते थे। लेकिन मुझे कुछ खास फरक नहीं पड़ा।

         एकदिन मैं जब कॉलेज में था, अचानक आयशा का कॉल आया। हमारी बात सिर्फ व्हाट्सएप पर होती थी, कॉल कभी नहीं किया। मैं थोड़ा चौंका। फिर झट से फोन उठाया। आयशा बोली, " तुम जरा कॉलेज गेट पर आओगे, मुझे कुछ हेल्प चाहिए"। मैं चल पड़ा।

         आयशा को जो हेल्प चाहिए थी वह थोड़ा तो अजीब था। कॉलेज से करीब सौ मीटर दूर एक कबूतर घायल पड़ा था। आयशा चाहती थी कि मैं उस कबूतर को पकडूं और फिर हम दोनों उसे किसी  veterinarian क्लीनिक लेके चलें। सच कहूं तो अगर आयशा की जगह और कोई होता तो मैं अपनी असमर्थता जाहिर कर वापस लौट आता। लेकिन अंदर से एक आवाज आई कि बेटा यही इश्क का इम्तेहान है, जी जान लगा दो। मैं आधे मन से आयशा के साथ चल पड़ा। दुर्घटना स्थल पर पहुंचा तो देखा कि सच में एक कबूतर पार्क की हुई एक गाड़ी के नीचे पड़ा हुआ है। पूरी हिम्मत जुटा कर मैं नीचे को झुका और कबूतर की तरफ हाथ बढ़ा दिए। जीवन में मैने पहले कभी इस तरह का कारनामा नहीं किया था। डर भी लग रहा था। खैर, डरा हुआ तो बेचारा कबूतर भी था। जैसे ही मैने उसे हाथ में लेने की कोशिश की वो जोर से फड़फड़ाया और मेरे हाथ से छिटककर दूर चला गया। पहला प्रयास निष्फल रहा। दूसरे प्रयास में सफलता मिली। कबूतर बेचारा बीच बीच में मेरे हाथों में फड़फड़ाता, लेकिन मैने उसे जाने नहीं दिया। उसका दाहिना पंख टूट चुका था। अगला काम था क्लीनिक पहुंचना। गूगल मैप पर ढूंढा तो कम से कम 15 किलोमीटर दूर था। आयशा ने दो तीन ऑटो वाले भैया को पकड़ा और कहा कि नजदीकी किसी भी जानवरों के क्लीनिक ले चलो। लेकिन उनमें से किसी को भी ऐसे किसी क्लीनिक का पता न था। मैं करीब दस मिनट घायल कबूतर को हाथ में पकड़े खड़ा रहा। आते जाते लोग मुझे अजीब निगाहों से देख रहे थे। लेकिन मुझे उस समय इन चीजों की कोई परवाह नहीं थी। परवाह थी तो बस इतनी की आयशा के सामने इंप्रेशन खराब न हो। अंततः क्लीनिक तक पहुंचने का कोई जुगाड़ नहीं मिला। बेचारी आयशा भी अब हार मान चुकी थी। उसने कहा कि अब हम और क्या ही कर सकते है। हमें इसे यहीं छोड़ देना चाहिए। "नेचर में ऐसा ही होता है"। मैने भी राहत की सांस ली। कबूतर को वापस वहीं छोड़ दिया। हमदोनों कॉलेज लौट आए।

               इसी तरह का वाकया एक बार और हुआ। आयशा कुछ दिनों के लिए दिल्ली से बाहर जा रही थी परिवार समेत। उसने एक गिलहरी पाल रखी थी। मुझसे कहा कि जब तक वो दिल्ली वापस आए उसकी गिलहरी मैं अपने पास रखूं। मैं फिर असमंजस में पड़ गया। मन में कई सवाल उठे। पहला यह कि मैं उस गिलहरी को अपने कमरे में लाऊंगा कैसे। और अगर ले भी आया तो गिलहरी का ख्याल कैसे रखूंगा। गिलहरियां चंचल होती है। कहीं गलती से बाहर निकल गई और किसी आवारा कुत्ते ने उसका शिकार कर लिया तो! लेने के देने पड़ जाएंगे। दो तीन दिन इसी उधेड़बुन में रहा। ऊपरवाले का लाख लाख शुक्र हो कि आयशा ने कुछ और जुगाड़ ढूंढ लिया था। उसने अपनी गिलहरी अपने पड़ोसी को सौंप दी थी। बच गया मैं।

     इतने दिन बाद भी, इतना कुछ हो जाने के बाद भी मेरे मन में कहीं न कहीं रियलिटी चेक का बोध था। मुझे पता था कि बातें वातें और दोस्ती तक तो ठीक है लेकिन इससे आगे बात अपनी नहीं बनेगी। वजह बहुत सारे थे। खैर, मैं इस दोस्ती में ही खुश था।

                एक दिन गुंजन के साथ मैं कॉलेज में बैठा था। उसे तो सारा मामला पता ही था। अचानक वह बोल उठी, "तुम आयशा के सपने देखना छोड़ दो। तुम दोनों का कुछ नहीं हो सकता। और वैसे भी उसका अब ब्वॉयफ्रेंड बन चुका है।" मैने भी हंसते हुए जवाब दिया," हां हां पता है मुझे। मैं कोई सपना नहीं देख रहा। तुम चिंता मत करो।" ब्वॉयफ्रेंड वाली खबर पक्की थी। हालांकि ये खबर मैने गुंजन से पहली बार सुनी। आयशा ने कभी इसका जिक्र नहीं किया था मेरे पास।

        अगले ही दिन जब मैं उठा तो एक खालीपन सा महसूस हो रहा था। गुंजन की वो बात बार बार याद आ रही थी। आयशा किसी और की थी। सोचा कि आयशा से खुद पूछूं।  लेकिन एक बार फिर हिम्मत नहीं जुटा पाया। अगले चार पांच दिन भी ऐसे ही खालीपन में गुजरे। कुछ अच्छा नहीं लगता था। ऐसे मौकों पर दस्तूरन लोग दर्द भरे गाने सुनते हैं। मुझे कोई  भी गाना उस समय न कोई तसल्ली न कोई आराम दिला रहा था। गुंजन की कही हुई बातें लगातार कानों में गूंज रही थी । सबकुछ फीका फीका सा लगता था। सीने के बाएं हिस्से में एक टीस लगातार बनी रही।

             एकबार फिर दिल को समझाया कि अब सच में सब कुछ खत्म करना होगा। व्हाट्सएप पर बातें धीरे धीरे कम कर दी। उसी समय कोविड भी आ चुका था। कॉलेज आना जाना बंद हो चुका था। बात करने के बहाने भी नहीं थे। आयशा की कुछ तस्वीरें जो मैंने उसके प्रोफाइल पिक्चर और व्हाट्सएप स्टेटस से स्क्रीनशॉट ली थी, सब डिलीट कर दिए। महीनों तक उसकी तरफ से भी कोई मैसेज नहीं आया। फिर मैने भी नंबर डिलीट कर दिया। और इस तरह कहानी खत्म हुई।

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