कॉलेज के दूसरे साल के शुरुआती दिनों की बात है। एक दिन मैं लाइब्रेरी में पढ़ रहा था। तभी एक लड़की मेरे पास आई और मुझसे बोली," हाय आशीष! एक हेल्प चाहिए थी।" वो गुंजन थी। हालांकि वो मेरी ही क्लास में पढ़ती थी, इससे पहले गुंजन से बात कभी नहीं हुई थी। मैने कहा," हां बताओ"। वो बोली," तुम मुझे इस साल का सिलेबस अच्छे से समझा सकते हो?" मुझे गुंजन का यह आग्रह काफी साधारण लगा। खैर, मैने उसे सिलेबस के बारे में सबकुछ बता दिया। उसके बाद हम दोनों ने औपचारिक रूप से अपना अपना परिचय दिया। अगले कुछ दिनों में हमारी दोस्ती हो गई और इसका श्रेय गुंजन को ही जाता था। वो इस तरह कि चूंकि मैं खुद काफी शर्मीला स्वभाव का था, बातचीत की पहली कोशिश गुंजन ही करती थी। धीरे धीरे मैं भी उसके साथ सहज हो गया। इस तरह दोस्ती पक्की होती गई। उन दिनों मैं कॉलेज के बाद मेट्रो पकड़ कर सीधे कोचिंग जाया करता था। करोल बाग स्टेशन मेरा गंतव्य हुआ करता था जहां पहुंचने में करीब एक घंटा लग जाता था। एक दिन गुंजन आई और मुझसे कहा," आशीष, आज मैं भी तुम्हारे साथ मेट्रो में जाऊंगी। ...
(शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं) दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में स्नातक डिग्री के लिए मैने अपना दाखिला करवाया। कॉलेज में जीवन कैसा होता है, इसको लेकर मेरी विभिन्न तरह की धारणाएं और कुछ आशाएं थीं। लेकिन इनमें जो मुख्य था वह यह कि शायद आगामी तीन वर्षों में कोई प्रेमिका मिल जाए। ये वाक्य लिखते हुए मुझे अभी अजीब तरह की शर्म आ रही है जिसे आजकल लोग "cringe" कहते हैं। लेकिन अब जो सच है सो है। कहानी आगे बढ़ाने से पहले थोड़ी भूमिका दे दूं। कॉलेज से पहले मेरा लड़कियों से बोलचाल बिलकुल न्यूनतम रहा। 12वीं कक्षा में कोचिंग में एक "crush" हुआ करती थी। लेकिन उससे कभी बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। संयोग से एक दिन वो मेरे पीछे वाले बेंच पे बैठी थी। तब उसने मुझसे कहा था, "जरा साइड होना, मुझे सामने बोर्ड नहीं दिख रहा।" बस इतनी बात हुई थी। कक्षा 5 से 10 तक मैं ऑल बॉयज रेजिडेंशियल स्कूल में था। खैर, वापस कॉलेज आते हैं। कॉलेज शुरू होने के 10-11 दिन बाद मेरा ध्यान एक लड़की पे गया। उसका...